नई दिल्ली।
सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी पारदर्शिता को लेकर गुरुवार को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि अगर कोई उम्मीदवार अपने नामांकन पत्र में आपराधिक सजा — चाहे वह कितनी भी मामूली क्यों न हो — का खुलासा नहीं करता, तो उसकी उम्मीदवारी रद्द कर दी जाएगी, भले ही वह सजा बाद में हाई कोर्ट द्वारा रद्द कर दी गई हो।
यह फैसला बिहार विधानसभा चुनावों के बीच आया है और ऐसे राज्यों के लिए बेहद अहम माना जा रहा है, जहां आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों की संख्या अधिक है। राजनीतिक दलों के लिए यह निर्णय एक बड़ा झटका साबित हो सकता है।
यह मामला मध्य प्रदेश के भीकनगांव नगर परिषद की पार्षद पूनम से जुड़ा है। पूनम पर नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 138 (चेक बाउंस केस) के तहत ट्रायल कोर्ट ने एक साल की सजा सुनाई थी।
हालांकि बाद में हाई कोर्ट ने यह सजा रद्द कर दी, लेकिन पूनम ने अपने नामांकन पत्र में इस सजा का उल्लेख नहीं किया। निचली अदालतों ने उनकी उम्मीदवारी रद्द कर दी थी, जिसके खिलाफ उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की थी।
जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा और जस्टिस अतुल एस. चंदुरकर की बेंच ने पूनम की विशेष अनुमति याचिका (SLP) खारिज करते हुए कहा:
“नामांकन पत्र में दोषसिद्धि का खुलासा न करना मतदाताओं के अधिकारों का सीधा उल्लंघन है। भले ही सजा बाद में रद्द कर दी गई हो, उम्मीदवार को इसे छिपाने का अधिकार नहीं है।”
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि —
“चुनावी हलफनामे में सभी पुरानी दोषसिद्धियों का उल्लेख अनिवार्य है, चाहे अपराध छोटा हो या सजा बाद में उलट दी गई हो।”
कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि यह फैसला भारतीय चुनाव प्रणाली में ईमानदारी और पारदर्शिता सुनिश्चित करने की दिशा में एक बड़ा कदम है। इससे राजनीतिक दलों पर भी दबाव बढ़ेगा कि वे अपने उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि को लेकर स्पष्टता और जिम्मेदारी दिखाएँ।
